07 December 2013

घनघोर अंधेरी रातोँ मेँ,

जब घनघोर अंधेरी रातोँ मेँ, 
आँखोँ मेँ नीँद ना होती है, 
जब नदिया की धारा के जैसे,
धङकन मेँ कलकल होती है, , 
तब तकिया को बाहोँ मेँ लेकर, 
ख्बाबोँ मेँ तेरे खोते हैँ, 
फिर तेरी यादेँ करती तन्हा, 
हम सुबक सुबक कर रोते हैँ, , 
फिर रोते रोते इन अंखियोँ मेँ, 
कोई निँदिया आकर बस जाती है,
फिर बदरा के जैसे घुमङ घुमङ, 
तू ख्बाबोँ मेँ आकर तङपाती है, , 
तब तेरी बिछङन मेँ तेरी तङपन मेँ, 
मेरी धङकन थम सी जाती है, 
फिर घनघोर अंधेरी रातोँ मेँ, 
नैनोँ से नीँद उङ जाती है, , 
फिर हर लम्हा इक नयी करवट मेँ, 
आँखोँ से निकले शरबत मेँ, 
तन्हा रात गुजरते जाती है, , 
पर तेरे ख्बाबोँ मेँ, तेरी यादोँ मेँ, 
और घनघोर अंधेरी रातोँ मेँ, 
फिर आँखोँ मेँ नीँद ना आती है, , 
तन्हा रात गुजरते जाती है, 
पर घनघोर अंधेरी रातोँ मेँ, 
आँखोँ मेँ नीँद ना आती है, 
आँखोँ मेँ नीँद ना आती है,,,

- Yogesh Gupta

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