27 June 2014

क्या पता किधर जाऊँ ?

कभी बन के बूँद पानी की बादलों से गिरती हूँ ।
कांपती हूँ, डरती हूँ, यूं ही सहमी फिरती हूँ ।
क्या पता किधर जाऊँ ?
सोख ले मिझे माटी या नहर में घुल जाऊँ ।
काश! ऐसा भी हो कि सीप कोई खाली हो
एक बूँद बन के भी मोती में बदल जाऊँ !
हमने कब माँगा तुमसे , मेरी मोहब्बत का हिसाब 
दर्द वाली किस्तें देते रहो , मोहब्बत बढती जायेगी

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