29 March 2014

हाँ मुझे स्वीकार है

मैं पिछले कुछ दिनों से सुन रहा हूँ , तुम्हारी सरगोशी,
और अब सच ये है के तुम ही को सोचता हूँ .मैं
खिंच गयी हो तुम मन में एक लकीर 
कच्चे कोलतार की सड़क पे पड़े पहिये के न मिट्ने वाले निशान के जैसी

हाँ-हाँ मुझे स्वीकार है मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
और मुझे ये भी स्वीकार है के तुम्हें पाने और ना पाने के बीच
बहुत सी दूरियां हैं,और कारण हैं
मसलन , तुम्हें जानता भी नहीं
तुमसे मिला भी नहीं देखा भी कहाँ है तुमको
अलावा उस एक धुंधली सी तस्वीर के 
जो है मेरे ख्यालों में और वैसे भी 
तुम्हारे मेरे दर्मियां फ़ासला भी है मीलों का,
प्रेम करना और उसे पाना  दो भिन्न-भिन्न बातें हैं
इस जनम में तो तुम्हें शायद पा ना सकूँ
और कई जनम लेने होंगे तुम्हें पाने को ...........

जनम तो शायद दुबारा हो भी जाएं मगर प्रेम …क्या दुबारा हो सकेगा 
तो क्या ये ख्वाब ये संकल्प अधूरा ही रहेगा
जनमों जनमों तक..???


No comments:

Post a Comment